
गर यही हद है तो अब हद से गुजर जाने दे।
ए जमीं! मुझको खलाओं में बिखर जाने दे।
रुख हवाओं का बदलना है हमीं को लेकिन
पहले आते हुए तूफाँ को गुज़र जाने दे ।
तेरी मर्ज़ी है मेरे दोस्त! बदल ले रस्ता
तुझको चलना था मेरे साथ, मगर जाने दे।
ये गलत है कि सही, बाद में सोचेंगे कभी
पहले चढ़ते हुए दरिया को उतर जाने दे।
हम जमीं वाले युहीं ख़ाक में मिल जाते हैं
आसमां तक कभी अपनी भी नज़र जाने दे।
दिन के ढलते ही खयालों में चला आता है
शाम ढलते ही जो कहता था कि घर जाने दे।
-देवेन्द्र गौतम
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वाह वाह, शानदार ग़ज़ल। गौतम जी को बहुत बहुत बधाई।
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