ये औरतें हर जगह दीख जाती हैं
जब एक पत्ता फूटता है
हल्का बैंगनी-हरा
कोमल अधरों पर सुबह की मुसकान सहेजता
तब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
गुड़ियों में बना रही होती है घर
संभाल रही होती है
खिलौनों के बर्तन
जिसमें कांच के रेशों -सा
खिंचने लगता है उसका वज़ूद.
जब कुछ मोगरे अपने सफ़ेद मुख पर
पोत लेते हैं खुशबू
और गुलाब रंग लेता है ओंठ लाल
तब एक कौमार्य औरत बनकर
ठेल रहा होता है अपना बदन
जैसे कछुआ समेटता है
हाथ-पैर कड़े खोल में
मोटा कपड़ा भी पारदर्शी हो जाता है
और किसी झिझक में
बंद कर रही होती है झरोखे , खिड़कियाँ
तब वह सिल रही होती है घर के परदे
जिसकी सीवनों में
सिल जाती है उसकी बखिया
कई तुरपने, काज , कसीदे ..
किसी सिंड्रेला के जूते छूट जाते हैं बॉल डांस में
और एक जूता लिए करती है इंतज़ार
पर महल कोई घसीट कर ले जाता है तहखाने में
अतीत की सभ्यताएँ
नदी किनारे यूं ही बिखरी रहती हैं
जिस पर लहरों की चादर चलती है
एक पर एक कई
और तलौंछ में सोई होती है जलपरी
आधी मछली ..
उसकी भौहें कितनी घनी हो जाती हैं
जैसे गरम भाप से नहाकर आता है बादल
उसकी बरौनियों पर बिजली टूटती है
रह-रहकर .. सिहरकर
और जंगल भीगते रहते हैं
पहाड़ों , मैदानों पर
तब वह किसी बेडौल गागर -सी
भर रही होती है जल
तुम्हारी क्षुधा की कितनी परवाह है उसे ..
पता नहीं किस बुढ़ापे तक
उसे ऐसे ही दीखना है
दरवेश रेत उड़ती रहती है
और फ़ैल जाते हैं सहारा के बदोइन
जिप्सी , थार के गाड़लिए ..
रेत की झुर्रियों में
कई हवाएं बंद हैं शायद !
खूबसूरत कविता।
ReplyDeleteखुली ऑंख से थोड़ा छुपता है थोड़ा सा दिखता है,
मन की ऑंखें खोलो तो फिर जाने क्या-क्या दिखता है।
Thanks! Naveen ji ..
ReplyDeleteतब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
ReplyDeleteगुड़ियों में बना रही होती है घर
संभाल रही होती है
खिलौनों के बर्तन
जिसमें कांच के रेशों -सा
खिंचने लगता है उसका वज़ूद.....आप के शब्द वैसे भी भीनी वर्षा के रूप में आतें है ...उस मिटटी को गिला कर देतें है ...फिर उस को अलग अलग रूप दिया करतें है यहाँ भी वही ...ओरत का रूप लिया है कही ....अपनी सुन्दर मूर्ति बनाती हुई सुन्दर शब्दों में विवाचन ....एक बार पुन पढवाने का सदर धन्यवाद् !!Nirmal Paneri
एक औरत को इतने विस्तृत रूप से परिचित कराना जिसमें कोमलता भी रहे साथ ही माँगें/मुमूर्षाएँ भी , कम देखने को मिलता है ! आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ! स्त्री को बहुत करीब से
ReplyDeleteदेखती,परखती ,तौलती !
बहुत खूबसूरती से नारी के हर पहलू को उजागर करती रचना..... खूबसूरत उपमाओं के लिए खूबसूरत प्रतीक..... कविता को सुन्दर बना रहे हैं.
ReplyDeleteबधाई व शुभकामनाएँ...
बहुत सुंदर कविता, अपर्णा जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteKya Bat hai
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteaurat ke andar tak jhankati sashakt rachana badhai
ReplyDeleteपता नहीं किस बुढ़ापे तक
ReplyDeleteउसे ऐसे ही दीखना है
नारी जीवन के हर एहसास को समेटे हुये सुन्दर रचना
बधाई।
अपर्णा भटनागर की बेहतरीन भावपूर्ण रचना को प्रस्तुत करने के लिये.... हार्दिक धन्यवाद ।
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