सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की अग्रिम शुभकामनाएँ
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दुष्यंत जी के लिए समर्पित मेरा एक शेर:-
फिज़ा में आज भी महके है खुश्बू-ए-दुष्यंत|
चलो कि अब तो कहें बा-क़माल नूर था वो||
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माहौल अब होली मय हो चुका है हर जगह| तो आइए हम भी कुछ होली की ठिठोली टाइप बात आप से साझा करते हैं| ये बात उन दिनों की है जब पत्राचार भी ग़ज़ल के माध्यम से होता था| तत्कालीन धर्मयुग संपादक श्री धर्मवीर भारती जी को दुष्यंत कुमार जी ने क्या लिखा और फिर धर्मवीर जी ने उस का उसी अंदाज में क्या जवाब भिजवाया, आप खुद देखिएगा:-
दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर|
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर|१|
अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया|
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर|२|
कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका|
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर|३|
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर|४|
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप|
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुजूर|५|
धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
[धर्म वीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्]
जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर|
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर|१|
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है|
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर|२|
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई|
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर|३|
पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन|
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर|४|
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम|
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर|५|
[ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।]
वाह! भाईसाब इतना मजेदार पत्राचार पढवाने के लिए आपका बहुत शुक्रिया | बहुत मज़ा आया इमान से !!!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत मनोरंजक पत्राचार पढवाने के लिये धन्यवाद..होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत मनोरंजक पत्राचार पढवाने के लिये धन्यवाद..होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteसाहित्य में अमर होने के लिए मरना क्यों जरूरी होता है? दुष्यंत कुमार को जीते जी कितना नकारा गया और आज..... उनका अनुसरण हो रहा है. काश!! हमारा साहित्यिक समाज और तथाकथित पहरुए आज भी इस बात को समझ जाते.
ReplyDeleteइस पत्राचार को हम सब तक पहुचाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नवीन भाई.
गजब की जबाबी कव्वाली।
ReplyDeleteमज़ेदार वाकया है।
ReplyDeleteउस्तादाना वार्तालाप।
गजब का वार्तालाप.....पढवाने के लिए आपका बहुत शुक्रिया ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी चीज प्रस्तुत की आपने| इतनी बढ़िया चीजें इतनी आसानी से कहाँ उपलब्ध हो पाती है, धन्यवाद सर|
ReplyDeleteनवीन भाई आपने उन दिनों की याद ताज़ा करा दी जो समुच्चय में मेरे लिये ’गुरु-दिन’ सदृश हैं.. और उसपर से ’धर्मयुग’ जिसका मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव हुआ है.
ReplyDeleteरामरिख मनहर, शैल चतुर्वेदी जैसे तमाम नाम तो थे ही जिन्हें धर्मयुग ने हास्य के अखाड़े में स्थापित किया हुआ था.. अज्ञेय, भवानीभाई, नईम, कैलाश गौतम, कैलाश सेंगर, इलाचंद्रजी, शरदजोशी जैसे लोग थे जो अपने-अपने क्षेत्र के उस्ताद हुआ करते थे.. या, यों कहें हर क्षेत्र और ’डोमेन’ की विभूतियों का अपना हुआ करता था ’धर्मयुग’. जैसे कि, यशपाल सदृश वैज्ञानिक विद्वान हों या नार्लिकर जैसे खालिस गणितज्ञ.. सबका अपना था धर्मयुग.मैं अवश्य बालपन से किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था किन्तु दृष्टि को सजग करने में भारतीजी का अमूल्य योगदान था मेरे जीवन में.. मैं इस माअने में ’एकलव्य’ हूँ जिसका ’द्रोण’ ने कभी ’अँगूठा’ नहीं लिया..
मनोरंजक पत्राचार
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
भाई नवीन जी देर से ही इस पोस्ट को पढा लेकिन आपने नायब गज़ल खोज निकला |खैर भारती जी और दुष्यन्त दोनों अद्भुत कवि थे ,ऐसे कवि दशकों बाद भी नहीं मिलते हैं |
ReplyDeleteबहुत मनोरंजक पत्राचार पढवाने के लिये धन्यवाद..होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteनविनजी, आपकी यह रचना पढ मै ३५ साल पहले के जिवन मे पहुच गया. दरअसल धर्मयुग मेरी उस समय की पसन्दिदा पत्रिका थी. सन १९७५ मे स्कुल मे थे. सो भोजन के समय ग्रंत्रालय मे जा यह पत्रिका पढते थे. बाद मे तो बंद ही हो गयी.आपके पास यह पत्रिका संजोयी है?
ReplyDeleteBahut hi badhiya patrachar.Dushyant ki baat hi kuch alag thi aur Dharmveer ji ki kanupriya meri pasandida rachnaon mein shumar.
ReplyDeletenaveen bhai ,
ReplyDeleteitni acchi rachna ke liye dil se badhayi .
dono patr padhkar man shaant ho gaya , kuch is tarh ki baate bhi hoti rahni chahiye ..
badhayi
मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html
kya kahte ham kya sunte ham, ham to gunge hain bahre hain
ReplyDeleteaur hamaare ujle sapne kal the jahan vahin thahre hain.
do bade logon ke beech me kya kahen? aise samvaad mere bhi nandan ji se aur udai prataap singh ji se hote rahe hain. padh kar aanand aaya. badhaai aise prasang dalne ke liye.
बहुत ख़ूब!!! हाज़िरजवाबी से परिपूर्ण! हम तक इन दोनों ही रचनाओं को लाने के लिए धन्यवाद..
ReplyDeleteमनोरंजक..धन्यवाद
ReplyDeleteआप सभी साहित्य रसिकों ने इस दुर्लभ पत्राचार को पढ़ कर स्वयं तो रसास्वादन किया ही, मेरे आनंद में भी अभेवृद्धि कर दी|
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर में कुछ अलग हट के वाली बातें ही बतियाना चाहता था शुरू से| आगे भी यही प्रयास रहेगा|
बहुत मनोरंजक पत्राचार पढवाने के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत पुरानी रचना है ये इसको सामने लाने के लिए आप बधाई के पात्र हैं !!
कृपया मेरे ब्लॉग पर आयें http://madanaryancom.blogspot.com/
ReplyDeleteबहुत बढिया!धन्यवाद.
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
नवीन जी कमाल कर दिया आपने....यह खोज बहुत महत्वपूरण है..उस समय की बात आज भी सच है.....सच यह समस्या आज भी विकराल है.....!..शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
ReplyDeleteहम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर...!